भारत में धर्मांतरण – मानव अधिकारों को आधार बनाना

पिछले कुछ हफ़्तों में, ऐसी कई घटनाएं हुई हैं और जाने-पहचाने चेहरों द्वारा कई कथन दिए गए हैं जो भारत की प्रसिद्ध धर्म-निरपेक्षता को जोखिम में डालते हैं। दिल्ली के सबसे बड़े चर्चों में से एक को जला दिया गया और यह इलज़ाम लगा कि पुलिस की कार्यवाही धीमी थी और चीज़ों को छिपाने का प्रयास किया जा रहा था। कुछ दिनों बाद, कुछ ही किलोमीटर दूर आगरा, उत्तर प्रदेश, में 200 मुस्लिमों को हिन्दू दक्षिणपंथी समूहों द्वारा एक ‘घरवापसी समारोह’ में वापिस हिन्दू बनाया गया।

इस बढ़ी हुई धार्मिक असहिष्णुता से बच्चों के मुद्दे भी नहीं बच पाएं। जैसे बस्तर, छत्तीसगढ़, में विश्व हिन्दू परिषद ने सांता क्लॉज़ को बच्चों को मिठाईयाँ बाँटने से रोक दिया गया क्योंकि इससे बच्चे ईसाई धर्म में परिवर्तित होने के लिए फुसलाए जा सकते हैं।

धर्मांतरण पर इस पूरे विवाद का सरकारी समाधान ये था कि देशभर में धर्मांतरण विरोधी कानून पारित किया जाए। यह भारत के संविधान के आर्टिकल 25 – जो सभी व्यक्तियों को अपने धर्म को खुलेआम मानने, उसपर अमल करने और उसका विस्तार करने के अधिकार की स्वतंत्रता और अंतःकरण की गारंटी देता है – और उन धर्मांतरणों के बीच एक अंतर प्रस्तुत करने का प्रयास है जो व्यक्तियों को बल और दबाव के माध्यम से फुसलाकर प्रेरित किए जाते हैं।  

धर्म और मानव अधिकारों पर चल रही चर्चा में, ऐडम कैसी ऐबेब ने धर्म और मानव अधिकारों के बीच के सहयोग के बारे में चर्चा करते समय ज़मीनी वास्तविकताओं की जाँच करते हुए व्यावहारिक मामला दर मामला विश्लेषण के लिए तर्क प्रस्तुत किया। उन्होंने धर्म को मानव अधिकारों की वैधता का विस्तार करने के लिए महत्वपूर्ण मानने वाले लैरी कॉक्स और धर्म को मानव अधिकारों के लिए एक देयता मानने वाले नीडा किरमानी के विपरीत कथन रखा।  

इस व्यावहारिक तरीके को आगे बढ़ाते हुए, यह लेख इस बात का तर्क प्रस्तुत करता है कि मानव अधिकारों को व्यक्ति के धार्मिक विकल्पों के मूल्यांकन का आधार बनना चाहिए।

भारत के उच्चतम न्यायालय ने रेवरेन्ड स्टेनिस्लॉ बनाम मध्य प्रदेश के राज्य 1977 AIR 908 में एक ऐतिहासिक फैसले को अंजाम देते हुए मध्य प्रदेश और उड़ीसा में धर्म की स्वतंत्रता की दो घटनाओं को मान्यता दी यह कथन देकर कि भारत के संविधान में दिए गए आर्टिकल 25 में ‘प्रचार’ शब्द का अर्थ धर्म के सिद्धांतों का केवल प्रदर्शन के माध्यम से उसे फैलाना है, और किसी दूसरे व्यक्ति का उस धर्म में परिवर्तन करने का अधिकार नहीं।


Demotix/Prabhat Kumar Verma (All rights reserved)

An indian man attends a Christian revival in Allahabad. Is religion a purely spiritual exercise or can it be examined in terms of its capacity for human well-being?


न्यायालय ने मूल रूप से बल, लालच, और धोखाधड़ी के उपयोग के माध्यम से धर्मांतरण को निषिद्ध किया। परंतु, न्यायालय ने किसी भी धर्म की ज़रूरी प्रथाओं और उसके अंशों पर या कौन-से सिद्धांतों को प्रेषित किए जाने की अनुमित है उसपर कोई भी कथन नहीं दिया। न्यायालय ने यह भी नहीं जाँचा कि सम्मान की रक्षा के लिए और सामाजिक भेदभाव के विरूद्ध जैसे अवसरों को प्रदान करना कहाँ और कैसे फुसलाने और प्रलोभन के साधन बन सकते हैं।

यह अस्पष्टता धर्मांतरण के क्षेत्र के बारे में प्रश्न उठाती है। क्या धर्म केवल एक आध्यात्मिक अभ्यास है या इसे मानव कल्याण की इसकी क्षमता के आधार पर भी जाँचा जा सकता है?

यदि व्यक्ति खाने, कपड़े, घर, शिक्षा, और स्वास्थ्य देखभाल के मूल मानव अधिकारों के लिए धर्म परिवर्तित करते हैं, तो इसमें अपमानजनक क्या है? क्या धर्म एक समर्थकारी वस्तु नहीं है? 

भारत में अधिकांश धर्मांतरण कथित तौर पर पिछड़े क्षेत्रों में होते हैं जहाँ धार्मिक समूह वे कार्य करते हैं जो सरकार करने में असफल रही हो। धार्मिक समूहों को लोगों को धर्मांतरित करने से रोककर न्यायालय एक व्यक्ति की स्वयं के जीवन के उद्देश्यों के बारे में निर्णय लेने की क्षमता पर संदेह कर रहा है। यदि व्यक्ति खाने, कपड़े, घर, शिक्षा, और स्वास्थ्य देखभाल के मूल मानव अधिकारों के लिए धर्म परिवर्तित करते हैं, तो इसमें अपमानजनक क्या है? क्या धर्म एक समर्थकारी वस्तु नहीं है?

डॉक्टर बी.आर. अम्बेडकर ने बाम्बे प्रसिडेंसी महर सम्मेलन के अपने भाषण में कहा कि अपना धर्म परिवर्तित करने की इच्छा रखने वाले लोगों के लिए मुख्य प्रश्न है कि “... हमारे जीवन को बेहतर बनाने के लिए क्या करना चाहिए? हमारे भविष्य के जीवन के लिए कैसे रास्त खोजना चाहिए ? ”

ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म की वास्तविक प्रकृति, क्यों धर्म आवश्यक है, और मनुष्य और समाज के बीच क्या संबंध है, इसके बारे में प्रश्न पूछकर अम्बेडकर ने धर्मांतरण को मानव कल्याण के लिए उसकी क्षमता के रूप में देखा। इन मुद्दों पर उनका उत्तर था कि पहला, एक व्यक्ति इन संबंधों में ख़ुशियाँ प्राप्त कर सके, दूसरा, व्यक्ति स्व-विकास के रास्ते पर चल सके और तीसरा, धर्म एक आदर्श समाज बनाने पर केन्द्रित रहे।

एक व्यक्ति कैसे उपलब्ध धार्मिक विकल्पों के साथ पेश आए उसके लिए अम्बेडकर का तर्क ‘अस्तित्व और व्यवहार’ को आवश्यक मानता है। यही विचार निवेदिता मेनन ने भी दोहराया जिन्होंने व्यंगपूर्ण ढंग से कहा कि “व्यापार में बेहतर मुनाफ़े की आशा में की गई पूजा ‘धर्म ’ है, परंतु एक दूसरे धर्म में परिवर्तित होना इस आशा में कि आपके बच्चे बेहतर स्कूल जा सके ‘अर्थशास्त्र ’ है?”

भारत जैसे देश में, बहुवैकल्पिक धार्मिक क्षेत्र एक बाज़ार से अलग नहीं है। क्यों एक धार्मिक उपयोगकर्ता उपलब्ध विभिन्न धार्मिक वस्तुओं में से एक इष्टतम बंडल चुने? ये बात सही है कि एक आम रुकावट ये होगी कि धर्म अन्य वस्तुओं से भिन्न आस्था का मुद्दा है। हालांकि आस्था बेशक एक महत्वपूर्ण विचार है, हमें जानना होगा कि एक आस्था को निर्मित करने में क्या आंकलन उपस्थित होते हैं और एक व्यक्ति की आस्था को परिभाषित करने का निर्णय लेने की किसमें सक्षमता होती है। यदि आस्था का विकास कार्य और क्षमताओं से होता है, तो मानव अधिकारों तक पहुंचने के लिए धर्मांतरणों को क्यों नहीं अनुमति दी जाए?

 प्रस्तावित धर्मांतरण-विरोधी कानून चुनाव और अंतःकरण के विवाद को दफना देगा और विचारों और अवसरों के लेनदेन पर रोक लगा देगा। यह बहुमत के मानदंडों को और एक बहुजातीय समाज पर एक समधर्मी पहचान थोपने का प्रयास है।

इस वर्ष के आरंभ में संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष रिपोर्टर ने धर्म और आस्था की स्वतंत्रता पर वॉल स्ट्रीट जनरल को दिए एक साक्षात्कार में धर्मांतरण-विरोधी कानूनों की आलोचना की। उन्होंने कहा कि ‘ज़बरदस्ती’ पर प्रतिबंध लगाना कई धुंधली अवधारणाओं, जैसे प्रलोभन या फुसलाना, के साथ मिश्रित हैं। इससे एक ऐसी स्थिति बन गई है जिसमें न केवल धर्म परिवर्तित करने वालों को बल्कि मिशनरियों को भी अपने विकास के कार्यों के लिए सताया जा रहा है क्योंकि इसे भी फुसलाने के रूप में देखा जा सकता है।

बहुसंख्यकवाद तर्क से प्रेरित प्रस्तावित धर्मांतरण-विरोधी कानून भारत की प्रसिद्ध विविधता को जोखिम में डालता है।