भारत में रोम संविधि का आश्चर्यजनक प्रभाव

सन् 1998 में जब अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय (इन्टरनैशनल क्रिमिनल कोर्ट– आईसीसी) ने रोम संविधि को अपनाया था, तो भारत इससे दूर रहा। इस स्थिति में कोई नहीं बदलाव आया है।

इसके विपरीत, अक्टूबर 2013 में, सरकार ने यह घोषित किया कि भारत ने रोम संविधि पर इसलिए हस्ताक्षर नहीं किया क्योंकि यह कई ऐसे अपराधों को न्यायालय के दायरे में लाता है, जो राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र के अधीन हैं, और जो राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र की प्रधानता को अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय की संतुष्टि पर निर्भर करता है। यह आतंकवाद को मानवता के विरूद्ध एक अपराध के रूप में शामिल नहीं करता है। यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को विशेष भेदभावपूर्ण  शक्तियां प्रदान करता है जो मूकदमो को अदालत को रेफर कर सकता है, या उन मुक़दमो पर विचार करने से रोक सकता है।”

भारत सरकार सुरक्षा परिषद को जाँच आरंभ करने या रोकने के लिए दिए जाने वाले विशेषाधिकार के बारे में सही लगती है, विशेष रूप से इसलिए क्योंकि वीटो करने वाले उसके पाँच स्थायी सदस्यों में से केवल दो ने ही इस संविधि की पुष्टि की है।

परंतु, उसके अन्य तर्क सही नहीं हैं:आतंकवाद कि घटनाओं को स्पष्ट रूप से रोम संविधि में शामिल किया गया है; और आईसीसी का अधिकार क्षेत्र राष्ट्रीय न्यायालयों की प्राथमिक भूमिका की पूरक है। हालांकि यह लगता है कि इस सम्बंध मे सरकार के मन में शीघ्र परिवर्तन आने की संभावना नहीं है, रोम संविधि ने भारत में दण्ड-मुक्ति के विरोध के प्रयासों में सहायता की है।

कुछ समय पहले तक, दण्ड-मुक्ति (इम्प्यूनिटी) भारतीय संदर्भ में एक अपरिचित शब्द था। यह बात नहीं है कि जनअपराध नहीं हुए थे। वे वर्षों से भारत की दिनचर्या का हिस्सा रहे हैं: 1984 में सिख विरोधी नरसंहार; 1989 में भागलपूर की सांप्रदायिक हिंसा में हत्याएं; पंजाब (1980 और 1990 के दशकों में) अज्ञात और आंशिक रूप से पहचाने जाने वाले शवों का अंतिम संस्कार किया जाना लोगो का अधिक संख्या में गायब होना;या 1992-९३ में होने वाले बॉम्बे के दंगे और उसके बाद होने वाले बम विस्फोट।

बड़े पैमाने पर हुए नरसंहार में से ये केवल कुछ ही घटनाएं हैं जो लोगों की याददाश्त में जीवित हैं। इसके अलावा, यह बात नहीं है कि इन घटनाओं में राज्यसत्ता की सहभागिता पर किसी का ध्यान नहीं गया था। बल्कि, अभी तक उस शब्दावली की खोज नहीं हुई थी जो एक सरलरूप से राज्य सत्ता की शरण में और अभियोजन से संरक्षण के साथ किए जाने वाले अपराधों की घटनाओं का वर्णन कर सकता हो।

दो तरकीब-अपराध और दण्ड के बीच खड़े रहे हैं। सबसे पहले, कई भारतीय कानूनों के अधीन पाए जाने वाली‘गुड फेथ’(ईमानदारी का इरादा) की धारा, जो यह मानकर चलती है कि एक व्यक्ति (आमतौर पर एक सरकारी अधिकारी), जो कानून के अंतर्गत कार्य करता है वो ईमानदारी के इरादे से काम करता है। और दूसरा, तथाकथित ' मंज़ूरी' का अधिकार जिसके अंतर्गत सरकार के पास यह फैसला करने का अधिकार सुरक्षित है कि क्या और कब एक 'लोक सेवक' पर मुकदमा चलाया जा सकता है। सरकार इस तरह के निर्णयों की व्याख्या करने के लिए बाध्य नहीं है, और न ही उसने यह बताने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए कि इस अधिकार का कैसे प्रयोग किया जाना चाहिए।

यह बात नहीं थी कि रोम संविधि ने भारत में 'दण्ड-मुक्ति' (इम्प्यूनिटी) को अर्थ दे दिया। यह 2002 में होने वाले गुजरात के नरसंहार ने किया। फरवरी 27, 2002 में ट्रेन के एक डिब्बे के जलाए जाने से अयोध्या से लौटने वाले 58 लोगों की मृत्यु हो गई। अयोध्या वही स्थान है जहा एक मस्जिद को प्रदर्शनकारियों ने 1992 में नष्ट कर दिया था इस माँग के साथ कि वहाँ एक हिन्दू मंदिर बनाया जाए। इसके बाद आने वाले दिनों में हिंसा के भीषण उदाहरण नज़र आए; आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 254 हिन्दूओं और 790 मुस्लिमों का मार डाला गया, कई लोग घायल हुए, और 200 से भी अधिक लोग गायब हो गये। पुलिस से लेकर नौकरशाही और राजनीतिक तंत्र और मुख्यमंत्री तक को इस हिंसा का अपराधी माना गया।

सन् 1984 में होने वाले सिख दंगों – जहाँ प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी की उनके सिख सुरक्षा कर्मियों द्वारा हत्या किए जाने के पश्चात 3000 सिखों का नरसंहार किया गया था– ने यह दिखाया था कि सरकारी शक्तियों द्वारा बचाए जाने वाले लोगों को अदालत तक लाना कितना कठिन है। इसी तरह, हालांकि 1993 के बॉम्बे दंगों की उच्च न्यायालय के एक मौजूदा न्यायाधीश की अध्यक्षता में जाँच की गई और उनकी रिपोर्ट ने पुलिस और राजनीतिज्ञों को अपराधी ठहराया, परंतु कोई कार्रवाई नहीं की गई।


Demotix/Sanjeev Syal (Some rights reserved)

Sikh protesters commemorate the 1984 anti-Sikh violence in Indian in which more than 3,000 people were killed.


जन अपराध और सरकारी दण्ड-मुक्ति के गठजोड़ के अनुभव का 2002 तक ढेर लग चुका था। सन् 2002 में गुजरात में होने वाली हत्याओं ने हिंसा में सरकारी सहभागिता के सभी पीड़ितों के अभिज्ञान को गहरा कर दिया,विशेष रूप से हिंसा के शिकार धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए।

गुजरात हिंसा के प्रभाव स्वरूप, 'सांप्रदायिक हिंसा', जिसका अर्थ है धार्मिक, जाति, जातीय या भाषाई तर्जों पर हिंसा, की घटनाओं को संबोधित करने के लिए शीघ्र एक कानून बनाने के लिए कोलाहाल मचा था। सन् 2005 में, उस समय की सरकार ने साम्प्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पीड़ितों का पुनर्वास) विधेयक संसद में पेश किया। विकृति यह है कि विधेयक की प्रस्तावना का उद्देश्य यह बताया गया: “...सांप्रदायिक हिंसा की रोकथाम और नियंत्रण के लिए कदम उठाने के लिए राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार को सशक्त करने के लिए...”। इससे वास्तविक मुद्दे, यानि हिंसा में राज्य सत्ता क़ी सहभागिता को संबोधित करने पर कोई काम नहीं हो पाया।

परंतु, नागरिक समाज समूहों ने रोम संविधि के आधार पर विधेयक में संशोधन के प्रस्ताव के लिए बहुत मेहनत की जिससे दण्ड-मुक्ति के ढांचे तोड़े जा सकें और राज्य सत्ता और उनकी एजेंसियों को जवाबदेह बनाया जा सके। उदाहरण के लिए, उच्च स्तरीय आदेशों की कोई रक्षा न हो, य़ा उनके बलों की कार्रवाई के लिए कमांडरों की ज़िम्मदारी की आवश्यकता को सुनिश्चित करने की धारणाओं को पेश किया गया;  साथ ही कर्तव्य की उपेक्षा के लिए अधिकारियों क़ी जवाबदेही और `रचनात्मक ज़िम्मेदारी 'के विचारों को भी रखा गया। पुलिस और सुरक्षा बलों को कमांड करने वाले लोगों पर स्पष्ट कर्तव्यों को रखने का यह प्रयास रोम संविधि और अंतरराष्ट्रीय आपराधिक कानूनी सिद्धांतों पर भारी रूप से आधारित था।

फिर भी, हालांकि भारत में आईसीसी एक दूर की संभावना है, रोम संविधि ने दण्ड-मुक्ति को समझने और उसे चुनौती देने की भाषा प्रदान की है। 

इसी प्रकार, अपराधों को परिभाषित करने के संबंध में 'युद्ध अपराधों',' मानवता के विरूद्ध अपराधों' और 'नरसंहार' की रोम संविधि श्रेणियों को उनके घटक तत्वों (यह भी संविधि से प्राप्त किए गए थे) में बाँटा गया, और इस से सांप्रदायिक हिंसा विधेयक में संशोधन के लिए ज़ोर लगाने में सहायता मिली है।इस बात पर बहस हुई है कि क्या गुजरात में हुई हिंसा रोम संविधि में दिए गए नरसंहार या मानवता के विरूद्ध हुए अपराधों की परिभाषा पर खरा उतरता है या नहीं। यह आकस्मिक नहीं है; अंतरराष्ट्रीय आपराधिक कानूनों को आधार बनाना सोचे-समझे प्रयास के अंतर्गत किया गया है। इसके अलावा, गुजरात की हिंसा के होने पर, आईसीसी में रुचि तुरंत और विस्फोटक थी, और रोम संविधि दण्ड-मुक्ति और जवाबदेही के ईर्द गिर्द और विचारों को प्रेरित कर रही है। यह अत्याचारों और महिलाओं के विरूद्ध हिंसा के सहित, हिंसा के लिए अधिक सरकारी जवाबदेही के अन्य विधेयकों पर बहस को प्रभावित कर रहा है।

यह कहना ज़रूरी होगा कि खुद अंतराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय ने उत्साह नहीं जागृत किया है।उस पर ज़्यादा ध्यान न देते हुए यह कहा जा सकता है कि यह वास्तविक होने से बहुत दूर है, और भारत में समस्याओं को यहाँ और अभी निपटाने की आवश्यकता है। भारतीय अदालतों में विलंब स्थानिक है, और यह तथ्य कि आईसीसी भी देरी से ग्रस्त है उम्मीदों पर पानी फेरेता है। इसके अलावा, आईसीसी का अफ्रिका पर विशेष रूप से केन्द्रित रहना, और यूएस, यूके, या नाटो को चुनौती देने में संभावित नाकामी, न्यायालय के अपराधी की शक्ति और पराक्रम से संबंधित न होकर अपराध से संबंधित होने की प्रतिष्ठा को कमज़ोर करता है।

फिर भी, हालांकि भारत में आईसीसी एक दूर की संभावना है, रोम संविधि ने दण्ड-मुक्ति को समझने और उसे चुनौती देने की भाषा प्रदान की है।