दुष्मन के साथ काम करनाः दोषियों का सहयोग करने के फ़ायदे और नुकसान

जब मैंने भारत में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से पूछा कि पुलिस लोगों को क्यों प्रताड़ित करती है तो मुझे प्रायः एक ही जवाब मिलाः क्योंकि वे इससे साफ बच सकते हैं। जब मैंने उनसे पूछा कि पहले-पहल तो कोई पुलिस आॅफिसर ऐसी हिंसा में संलग्न क्यों होगाए ऐसे ही बहुत से स्पष्टीकरण दिये गएः लालचए षक्ति की लालसा और कमज़ोर समुदाय के खिलाफ पक्षपात।

मैंने अपनी किताब मेंए जो इस बारे में है कि पुलिस आॅफिसर हिंसा को किस प्रकार समझते हैं और उनका मानवाधिकारों के संदेषों को क्या जवाब होता हैए भारत में 12 महीनों के फील्ड-वर्क में काम करते समय मानवाधिकार वकीलोंए कार्यकत्र्ताओं और षिक्षकों से ये सवाल पूछे। लेकिन किताब के लिये मेरे अधिकतर गहराई वाले महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार पुलिस आॅफिसरों के ही थे। उनके घरों में रेस्टोरेंट और काॅफी-हाउस में और पुलिस स्टेषनों और पैरामिलिटरी बंकरों में हुई लम्बी बातचीतों से मैंने पुलिसवालों के अन्दर घर की हुई नैतिक दुनिया की थाह ली। और बहुत से देषों की तरह ही भारत एक ऐसा देष है जिसमें पुलिस-प्रताड़ना एक आम बात है। हालाँकि इसके कोई साफ़ आंकडे नहीं हैंए क्योंकि प्रताड़ना की रिपोर्ट करना और रिकाॅर्ड रखना मुष्किल हैए फिर भी स्थानीय और अन्तर्राष्टीय गैर सरकारी संगठनों ;एनजीओद्ध को इसका इतना व्यापक होना दुखता है। मैं यह जानना चाहती थी पुलिस उनके दवारा की गई हिंसा को कैसे समझती है और और उनकी समझ का मतलब मानवाधिकारों के प्रयत्नों को जवाब देने में क्या है।

मैंने पाया कि पुलिस कानून के बाहर की हिंसा की लगातार और पूरे दिल से कवायद करती है उन वाकयों में भी जब वे इसे रोक सकते थे या इससे दूर रह सकते थे। ये पुलिस की सभी कार्यवाहियों का स्वाभाविक बचाव नहीं हैः वह केस को अपनी खुद की नैतिकता के आयामों के भीतर आंकने के लिये उसकी सभी बारीकियों को जानना चाहती है। हिंसा का षिकार इस प्रताड़ना के लायक था या फिर आॅफिसर ने अपने खुद के फायदे या जनता की भलाई के लिये ऐसा कदम उठाया इस पर आधारित अन्तर उनके न्याय की धारणा को एक रूप देते हैं। इन आॅफिसर्स के लिये बस यही अन्तर करना जरूरी है कि वे किसे कष्ट दें और किसे कष्ट न देंय एक जैसी सुरक्षा न्याय को कमजोर बना देगी।

इसका मतलब यह नहीं है कि पुलिस अपने ही न्याय की धारणा पर जीती है। वे स्वीकार करते हैं कि प्रायः वे ऐसा नहीं करते। लेकिन अगर वे अपने आदर्षों पर भी चलें तो भी वे मानवाधिकारों की रक्षा नहीं कर रहे होंगे।


Flickr/Marcos Mesa Sam Wordley (Some rights reserved)

Policeman facing women in a protest march Calcutta Kolkata India. For some officers, what matters is differentiating between whom they should and should not harm; equal protections would undermine justice.


लेकिन कार्यकत्र्ता ऐसी जानकारी के साथ क्या करें-पहलेपहल क्या वे दोषियों को समझने की कोषिष करेंघ् यह सवाल कभी-कभी जितने दिखते हैं उससे कहीं ज्यादा जटिल हैं।

साफ़ नैतिक रेखा की पहचान मानवाधिकार आंदोलन की षक्ति है पर इससे भी लोगों के विभिन्न प्रकारों के आस-पास सीमा-रेखा खींचने की प्रवति बन गयी है। एक आलोचक ने मानवाधिकार कार्यकत्र्तााओंए जिन लोगों के अधिकार का उल्लंघन हुआ है और जिन लोगों ने उनका उल्लंघन किया है को ¨रक्षकए प्रताड़ित और भक्षक¨ के काल्पनिक संबंध की तरह वर्णन किया है। यह एक ऐसा वर्णन है जिसे बहुत कम कार्यकत्र्ता ही स्वीकार करेंगे विषेषकर इस समय में जिसमें ¨हमारे बिनाए हमारे बारे में कुछ नहीं¨ और ¨सषक्तिकरण¨ का आदर्ष हिमायत का माहौल बनाते हैं।

लेकिन यदि कार्यकत्र्ता रक्षकों और प्रताड़ितों की भूमिका की आसानी से पुष्टि नहीं करते तो वे भक्षकों की पहचान को निष्चित करने के ज्यादा इच्छुक हैं। मानवाधिकारों की रिपोर्टस में कभी-कभी दोषी एक ऐसी प्रणाली की कठपुतली नजर आते हैं जो उनके खुद के नियंत्रण से बाहर है जैसा कि भारत में पुलिस-प्रताड़ना की इस इन्वेस्टीगेषन में। बहुप्रायः उनके इस तरह के व्यवहार का कोई कारण नहीं होता। प्रताड़ना और दूसरी तरह की हिंसा के स्पष्टीकरण की कोई जरूरत ही नहीं होती।
दोषी अपने स्वयं के कार्यों को कैसे समझते हैं षोधकर्ता भी कभी कभी ही गहराई में जाकर इस बात की जांच करते हैं। बहुत सी षोधों में जैसा कि मैंने कहीं और भी बताया है इस हिंसा के समाजिकरण करने या इसको बढावा देने वाले वातावरण का गहन विवरण दिया गया है। जेम्स राॅन और डेवाॅरा मैनेकीन जैसे विदवानों ने इस बारे में सूक्ष्म जांच-पडताल की है कि व्यक्ति इन बाहरी स्थितियों के प्रति कैसी प्रतिक्रिया करते हैं। एरिका वाइस जैसे दूसरे बुद्धिजीवी उन नैतिक प्रेरणाओं का महत्त्वपूर्ण विवरण देते हैं जिन्होंने उन लोगों को अधिकारों की रक्षा के कवायदी बना दिया जो कभी खुद ही हिंसक थे। लेकिन दोषियों की धारणा पर कि हिंसा सही क्यों है बहुत कम ध्यान दिया गया है। जब बुद्धिजीवी दोषियों की धारणा पर षोध करते हैं तो उनका सुझाव होता है कि ये धारणायें दुव्र्यवहार को सही ठहराना मात्र है या फिर एक ऐसी विचारधारा है जो हिंसा से फायदे उठाने वाली प्रणाली ने ही प्रोत्साहित की है।

हाल ही में मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले लोगों को खुद को समझने में एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण प्रोत्साहन मिला जैसा कि ज़ाइरा डै्रमिस और एना हेडलुंड की सूक्ष्मदर्षी रचनाओं में साक्ष्य है और स्टेफेन जेन्सन और एंड्रेउ जेफेरसन की राजकीय हिंसा पर रचना में। कार्यकत्र्ता दोषियों के साथ सहयोगपूर्ण काम करने के फ़ायदों को तेजी से पहचानते हैं जैसे कि एक हाल ही की षुरूआत जिसमें श्रीलंका और नेपाल में प्रताड़ना को कम करने की नीति को बनाने में पुलिस को साथ लिया गया।

तथापिए मानवाधिकार भंग करने वालों के अधिकारों को समझने की इस मांग के विरोध में षक्तिषाली नैतिक कारण हैं। जैसा कि जेम्स डाव्स ने इंगित किया हैए ¨इस समझने के प्रोजेक्ट में ही एक पूर्णतया बेहूदापन है।¨ अपनी दिल को भेद देने वाली किताब में जापानी युद्ध के अपराधियों की अन्दर की दुनिया की जांच करते हुए डेव्स अपने खुद के प्रोजेक्ट पर सवाल उठाते हैंए यह ध्यान दिलाते हैं कि क्रूरता को समझने की बजाय उसकी भत्र्सना करने में एक नैतिक कत्र्तव्य हो सकता है। दोषियों के अनुभव की नैतिक संदिग्धता पर ध्यान देना उन गिरते हुए भेदों को खतरें में डालता है जिनका पालन भविष्य में होने वाले दुरूपयोग को रोकने के लिये और किसी भी प्रकार की नैतिक भावना को बनाये रखने के लिये किया ही जाना चाहिये। बल्किए जिसे समझने की अवहेलना की जानी चाहिये उसका कारण बताने की कोषिष करना सच में इसकी वास्तविक भयानकता को कम कर सकता है।

फिर भी लोग दूसरों का बुरा क्यों करते हैं इसे समझने को नकारने में अमानवीकरण का एक तत्त्व है। पुलिस इस बारे में स्पष्ट हैः आॅफिसर्स के साथ मेरे साक्षात्कारों के दौरान एक लगभग सर्वव्यापी बात थीः ¨मानवाधिकार कार्यकत्र्ता यह नहीं समझते कि पुलिस आॅफिसर्स भी एक मानव ही है।¨ यहां एक व्यंग्य रह ही जाता है कि जो सार्वभौमिक मानव के गौरव की बात करते हैं वे कुछ लोगों को समझ से परे ढकेलते हैं।

जो राजकीय अधिकारी हिंसा का प्रयोग करते हैं उनके साथ सहयोगपूर्ण कार्य करने और उन्हें समझने के पीछे कार्यनीतिक कारण हैं-और न करने और न समझने के पीछे भी। क्या हिंसा को कम करने में कार्यकत्र्ता कारगर साबित होंगे अगर वे समझ जायें कि दोषी हिंसा पर क्यों उतारू होते हैं और उसे उचित ठहराते हैंघ् तथापिए पुलिस सुधार विषेषज्ञ इस बात पर जोर देते हैं कि बदलाव पहले बाहरी दबाव से नहीं आ सकता-सुधारकों को इसमें पुलिस का निर्णय समर्थन उत्पन्न करना ही होगा।
हालांकिए बाहरी दबावए जैसे कि विरोध और सार्वजनिक रिपोर्ट जो अधिकार भंग करने वालों को ¨विख्यात और कुख्यात¨ करती हैए इसके साथ उन्हें जिम्मेदार ठहराने के लिये मुकदमे करनाए बहुत बार बस यही है जो राजकीय हिंसा का निवारण करते हैं। बहुत से पुलिस आॅफिसर्स ने मुझे बताया कि इन नकारात्मक परिणामों की वजह से वे अब और समय उस बल का प्रयोग नहीं करते जो उन्हें जरूरी लगता है। उन्हीं के षब्दों में कहें तोए कोर्ट के लम्बे मुकदमे और नकारात्मक सार्वजनिक ध्यान उन्हें कम काम करवाते हैं। यदि काम का अर्थ प्रताडना और मारना है तो यह एक जीत है।

परन्तु उनके षब्द बताते हैं कि उनके काम पर बिना किसी असली परिवर्तन के ही पर्दा पड़ गया है। इसका मतलब ऐसे उपाय सिर्फ तभी कामयाब हो सकते हैं जब पुलिस को लगे कि वे पकडे़ जायेंगे। कम चोट पहुँचाने में और अच्छी पुलिस होने में अन्तर है। इस दूसरे ध्येय को हासिल करने के लिये पुलिस का वास्तविक निर्णय-समर्थन आवष्यक होगा जोकि विरोध और मुकदमे मानवाधिकार आंदोलन से पुलिस आॅफिसर्स को  अलग करने से कमजोर कर सकते हैं।

इन तनावों के होते हुए कार्यकत्र्ताओं को क्या करना चाहियेघ् क्या कार्यकत्र्ताओं को हिंसक राजकीय अधिकारियों को सहयोग देते हुए उनके साथ होना चाहियेघ् या फिरए संक्षेप मेंए उनसे कोर्ट में मिलना चाहियेघ् अगर वे इन दोनों ही उपायों का प्रयोग करने का निर्णय लेते हैं तो एक उपाय का प्रयोग करते हुए दूसरे को कमजोर होने से कैसे बचा सकते हैं क्योंकि राजकीय अधिकारी उन लोगों का सहयोग करने से मनाते करते हैं जो उनकी बदनामी करते हैं और उन पर मुकदमा करते हैंघ्