अनुदान और नागरिक स्वतंत्रताएं

विदेशी अनुदान नियमन अधिनियम (एफसीआरए) के माध्यम से सरकार अपनी ताकतों का प्रयोग करके अनिवार्य रूप से एक वित्तीय लेनदेन के रूप में माने जाने वाले धन के प्रवाह को नियंत्रित करती है। अक्सर, एफसीआरए का प्रयोग अधिकारों की गतिविधियों को दबाने और उन वित्त-पोषित संगठनों को डराने और चुप कराने के लिए किया जाता है जो सरकार की नीतियों की आलोचना करते हैं, अधिकारों के हनन का पर्दाफाश करते हैं, या सरकार की कार्रवाई को चुनौती देते हैं। इससे सरकार को चुनिंदा समूहों के पक्ष में विदेशी अनुदान के लिए अनुमति देने में अनियंत्रित, विवेकाधीन शक्तियां प्राप्त होती हैं। यदि गलती से कोई मानवाधिकार संगठन सरकार के खिलाफ़ असहमति दिखाता है, तो इसे राजनीतिक रूप से निशाना बनाया जाता है, इसकी एफसीआरए अनुमति को रद्द या अस्वीकार कर दिया जाता है। आरएसएस जैसे हिंदुत्व दक्षिणपंथी समूहों द्वारा चलाए जाने वाले संगठनों को अत्यधिक विदेशी अनुदान प्राप्त होता है, एफसीआरए की बाध्यताओं को शायद ही कभी उनपर लागू किया जाता है। कानून को केवल कुछ कार्रवाइयों को दबाने, और अन्य सुविधाजनक राजनीतिक एजेंडे का पोषण करने के लिए प्रयोग किया जाता है। यह अपने आप में ही मानव अधिकारों का उल्लंघन है, और मैं नायर और गुरूस्वामी से सहमत हूँ कि एफसीआरए को निरस्त कर दिया जाना चाहिए।

एफसीआरए की मज़बूत पकड़ की आलोचना करते हुए हमें यह ध्यान देना चाहिए कि विदेशी अनुदान पर कोई भी चर्चा उसके प्रभावों को नज़रअंदाज़ करके नहीं की जा सकती है। कई वित्त-पोषित समूह अच्छे अभियान चलाते हैं, परंतु अन्य संगठनों की गतिविधियां संदिग्ध होती हैं। उनके लिए, मानवाधिकारों का काम प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति से अधिक एक पेशा होता है।

क्या भारत में किए जाने वाले मानवाधिकारों के कार्यों को वैश्विक अनुदान की ज़रूरत है? मुझे नहीं लगता। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (पीयूसीएल), जिसके साथ मैं पिछले दो दशकों से अधिक समय के लिए संबद्ध रहा हूँ, केवल भारतीय स्रोतों से ही अभियानों के लिए धन जुटाता है। हम वैश्विक या भारतीय संस्थागत अनुदान स्वीकार नहीं करते हैं। हमने व्यक्तिगत योगदान पर भी एक सीमा लगाई हुई है, ताकि व्यापक भागीदारी को प्रोत्साहित किया जा सके। यह निर्णय नैतिक और राजनीतिक हितों से प्रेरित 1976 में पीयूसीएल की स्थापना के दौरान लिया गया था। सर्वाधिक रूप से आवश्यक यह है कि मानव अधिकारों का काम स्वैच्छिक, राजनीतिक होना चाहिए, और लोकतंत्र को मज़बूत करने की दिशा में एक निजी और नैतिक प्रतिबद्धता को प्रतिबिंबित करना चाहिए।

अनुदान और अनुदान देने वाली एजेंसियों पर निर्भरता ने, दुर्भाग्य से, भारत में मानवाधिकारों के काम को अपंग कर दिया है। इसने मानवाधिकार कार्यों के एजेंडा को, चुने हुए मुद्दों को, और अभियानों की ताकत और चिरस्थायित्व पर शासन करना आरंभ कर दिया है। क्या करना है क्या नहीं करना है इसका निर्धारण अनुदानकर्ताओं ने करना शुरु कर दिया है, चाहे वह एचआईवी/एड्स हो, शिक्षा हो, बाल-अधिकार हो, महिलाओं के अधिकार हो, दलित अधिकार हो, या यातना। अनुदान ने मानव अधिकारों के क्षेत्र को एक कैरियर में परिवर्तित कर दिया है, और यह परियोजनाओं पर आधारित ग़ैर-राजनैतिक भागीदारी को प्रोत्साहित करता है।

संस्थागत अनुदान ने भारत में मानवाधिकारों के काम में कई अस्वस्थ प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया है। सबसे पहले, इससे स्थानिक मानव अधिकारों के मुद्दे राजनैतिक क्रियाकलाप के प्रभाव से बाहर हो गए हैं। अधिकांश िनयम-उल्लंघन संरचनात्मक और दीर्घकालिक हैं, पंरतु अनुदानकर्ताओं की रुचि के पैटर्न के कारण कई गैर-सरकारी संगठन केवल समस्याओं की अभिव्यक्तियों पर ही नज़र डालते हैं। वे मुख्य रूप से अधिकारों की सतही, कम विवादास्पद उल्लंघनों की घटनाओं पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं — जैसे पुलिस और सत्ता के संस्थागत दुरुपयोग के बजाय अत्याचार के अलग-अलग मामलों पर; गरीबी भूमि सुधार आंदोलनों, दमनकारी कृषि संरचना और बेरोज़गारी के बजाय बाल-अधिकारों पर; प्रणालीगत पैत्रक-सत्ता के बजाय महिलाओं के अधिकारों के उल्लंघन की घटनाओं पर। मुद्दों की राजनीति, अक्सर, मानव अधिकारों के काम के विषय में अनुदानकर्ता के मानवतावादी, साफ़-सुथरे और राजनीति के परे होने के भ्रम पर आधारित होती है। दूसरे शब्दों में, अधिकारों के उल्लंघन का समाधान विकास द्वारा किए जाने की पेशकश की जाती है।

उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में, 26 दिसम्बर, 2004 को  सुनामी के बाद, कार्यकर्ताओं को यह एहसास हुआ कि पुनर्वास अनुदान केवल नौकाओं और जालों के वितरण, या आवास जैसे कुछ कार्यों के लिए ही उपलब्ध कराया जाएगा। प्रशासन केवल उन्हीं गैर-सरकारी संगठनों को अनुमति दे रहा था जो सरकार के राहत और पुनर्वास के उपायों को चुनौती न देने वाले विकास के काम कर रहे थे। कुछ उल्लेखनीय संगठनों को छोड़कर, अधिकतर वित्त-पोषित संगठन यही करने लगे। कुछ ही ने सरकार की पुनर्वास नीतियों या राहत कार्यों में जातिगत भेदभाव पर सवाल उठाए। उन्होंने तटीय अवक्रमण, मत्स्य पालन क्षेत्र को प्रभावित करने वाले प्रदूषण या संकट के संदर्भ में सुनामी की जांच नहीं की। धन के अभूतपूर्व और भारी आमद ने अनुदान प्राप्त करने वाले गैर-सरकारी संगठनों के बीच शर्मनाक प्रतिस्पर्धा और स्थानीय कार्यकर्ताओं के बीच समझौतों को बढ़ावा दिया। शक्तिशाली सामूहिक सामुदायिक कार्य धन से भरे हुए गैर-सरकारी संगठनों के त्वरित हल के कारण भुला दिए गए।

मैं ज़ोर देना चाहता हूँ कि मैं सभी समूहों पर आरोप नहीं लगा रहा हूँ। परंतु, बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और नैतिक अध:पतन वास्तविक चिंता का विषय है और विदेशी अनुदान पर एक बहस होनी चािहये।

दूसरी बात यह है कि अनुदान ने मानवाधिकार कार्यों को मुद्रीकृत कर दिया है। गैर-सरकारी संगठन भुगतान देते हैं—या उनके शब्दों में क्षतिपूर्ति करते हैं—उन मज़दूरों और किसानों को जो उनके विरोध प्रदर्शन में भाग लेते हैं। वे उन्हें यात्रा के लिए किराया, रहने के लिए जगह और उन कार्य दिवसों के लिए न्यूनतम मज़दूरी देते हैं जो उन्होंने भाग लेने के लिए छोड़े हैं। मैं प्रतिभागियों को इस तरह का भुगतान स्वीकार करने के लिए दोष नहीं देता हूँ, परंतु इस व्यवहार से कई दशकों से भारतीय मानवाधिकार आंदोलनों को प्रेरित करने वाली स्वयंसेवा की हिम्मत टूट जाती है। इससे कुछ प्रतिष्ठित ज़मीनी स्तर के आंदोलनों में निरंतर भागीदारी को भी तोड़कर रख दिया है। अब लोग पूछते हैं: क्या आप मुझे बिरयानी खिलाएंगे, एक फ़ोल्डर और बैग देंगे? यदि इन्हें मुआवज़ा या प्रलोभन नहीं दिया जाता है, तो कभी-कभी, वे भाग नहीं लेते हैं।

स्वैच्छिक भागीदारी और प्रतिबद्धता पर पनपने वाली लोकतांत्रिक प्रक्रिया अकेले ही मानव अधिकारों के आंदोलन को आगे ले जा सकती है। कुछ महीने पहले, केंद्रीय भारत के मध्य प्रदेश राज्य में बड़वानी में एक विशाल आदिवासी विरोध ने हज़ारों की संख्या में लोगों को जुटाया। हर भागीदार ने वहाँ अपनी जेब से योगदान दिया।

भाग लेने के लिए भुगतान करने की संस्कृति कई आंदोलनों में प्रवेश कर चुकी है और, एक हद तक, ज़मीनी स्तर के लोकतंत्र की मूलभूत, सशक्त बनाने वाली प्रक्रिया को दुर्बल बना चुकी है। दलितों, कृषि मज़दूरों, महिलाओं के समूहों के स्थानीय आंदोलन, जो अब तक अपने स्वयं के संसाधनों पर निर्भर करते थे, हाल के वर्षों में, अनुदान देने वाले ऐसे संगठनों द्वारा आकर्षित किए जा रहे हैं जो उनके आंदोलनों को आर्थिक सहायता देने की पेशकश कर रहे हैं। इससे उन समूहों के बीच अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा छिड़ गई है जो पहले एक दूसरे के साथ सहयोग कर रहे थे।

तीसरा, मैं एक मानव अधिकार के कैरियर के उद्भव के बारे में चिंतित हूँ। सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी जीविका और आजीविका के लिए एक तरीके की ज़रूरत है, परंतु, मैं एक सदाचार-आधारित और नैतिक सवाल पूछना चाहता हूँ: ऐसे कौन-से समझौते हैं जो मानवाधिकार के क्षेत्र को एक पेशा बनाने में निहित होते हैं? जब यह एक नौकरी होती है, तो मानव अधिकार `कर्मचारी' पहले तीन सालों के लिए आदिवासी अधिकारों पर काम करते हैं, और एक उच्च वेतन की पेशकश मिलने पर, वह बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने निकल पड़ते हैं। नौकरी के बार-बार बदलने से मानवाधिकारों के क्षेत्र में, जिसमें सफलता पाने के लिए ज़रूरी समय अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक है, निरंतर काम करने के लिए आवश्यक गंभीरता, दृष्टि और दीर्घकालिक प्रतिबद्धता क्षीण हो जाती है। जब मानव अधिकारों के पेशेवरों को कुछ वर्षों के लिए कुछ स्थानों में रखा जाता है, और फिर उन्हें कहीं और भेज दिया जाता है, तो उनकी भागीदारी और योगदान ज़्यादा आगे तक नहीं पहुँच पाती है। इनका दृष्टिकोण एक 9 से 5 तक की नौकरी का होता है, जबकि नागरिक स्वतंत्रता एक 24 घंटों, 365 दिन का मामला है जो आपके जीवन जीने के तरीके को निर्देशित करती है। आदर्श तरीका मानव अधिकारों में लोकतांत्रिक भागीदारी है। आप योगदान करते हैं, चाहे आप एक वकील, विज्ञापन पेशेवर, निर्माण कार्यकर्ता, या व्यापारी हों।

चौथी बात यह है कि गैर-सरकारी क्षेत्र में जवाबदेही की कमी की महत्वत्ता को हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं। ज़ाहिर है कि अपवाद हैं, परंतु, दर्दनाक और बदसूरत वास्तविकता यह है कि भ्रष्ट या अक्षम प्रथाओं के माध्यम से धन को इधर-उधर हटा दिया जाता है। मानव अधिकार के बहुमूल्य अनुदान को बड़े पैमाने पर आवास, यात्रा, भोजन, और वेतन पर खर्च कर दिया जाता है। जितनी अधिक धनराशि प्रशासनिक, कार्यालय या वेतन में खर्च होती है, उतना ही कम अनुदान एक बलात्कार या यातना की शिकार की मदद के लिए उपलब्ध होता है। भारतीय गैर-सरकारी संगठन अक्सर व्यक्तित्व आधारित होते हैं; इनमें से कई एक व्यक्ति या एक परिवार द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं। इनकी जीवन शैली अक्सर भव्य और संदिग्ध होती है। यहीं पर ज़बरदस्त भ्रष्टाचार उपस्थित रहता है।

पांचवीं बात, जो मेरे लिए सबसे अधिक चिंता का विषय है, वह यह है कि  अनुदान का प्रभाव मानवाधिकार संगठनों की प्राथमिकताओं पर पड़ना आरंभ हो गया है। आज के भारत में हम एक गंभीर रूप से दमनकारी और अलोकतांत्रिक संदर्भ में जी रहे हैं। लोगों के आंदोलनों को दबाने और कुचलने के लिए सत्तारूढ़ कुलीन वर्ग सरकार के साथ शामिल हो गई है। सामूहिक बलात्कार या भ्रष्टाचार के खिलाफ़ स्वतंत्र, स्वैच्छिक विरोध प्रदर्शन पुलिस बल के द्वारा दबा दिए जाते हैं। कई भारतीय कार्यकर्ता तोड़ देने वाली मुकदमेबाज़ी और झूठे मुकदमों में फंस कर रह गए हैं; एक पूरे समुदाय, जैसे तमिल मछुआरों या मुसलमानों, को आतंकवादियों के रूप में घोषित कर दिया गया है; समाज के कमज़ोर वर्ग सरकार द्वारा प्रायोजित क्रूरता के शिकार हैं। मानवाधिकार कार्य उद्योग, राजनीति, और ताकत के एक गठजोड़ में फंसकर रह गया है।

इस चुनौतीपूर्ण परिदृश्य में भी कुछ वित्त-पोषित मानवीय समूह ऐसे हैं जो राजनीतिक रूप से सही बयान देने से ज़्यादा सरकार द्वारा प्रायोजित आतंकवाद या कॉर्पोरेट दंड-मुक्ति पर प्रश्न उठाते हैं। अवैध खनन, कम मज़दूरी, कारखानों के यूनियनों पर रोक, सशस्त्र बलों द्वारा हनन जैसे उद्योग-संबंधित मुद्दे, तटीय परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के खिलाफ़ ग्रामीणों के मामले राजनीतिक रूप से आग लगानेवाले होते हैं और इन्हें बहुत कम समर्थन प्राप्त होता है।

अक्सर, वित्त-पोषित संगठनों की प्रथाएं धन के प्रवाह द्वारा और प्रायोजक की क्षमता या बिल के पैसे अदा करने की इच्छा पर निर्धारित होती है।  सरकारी या कॉर्पोरेट सिस्टम के विरूद्ध खड़े होने के लिए स्वतंत्र, निरंतर समर्थन की आवश्यकता पड़ती है। बड़े प्रायोजक शायद ही इसका समर्थन करते हैं।

मैं पीयूसीएल के साथ जुड़ा हूँ क्योंकि इसके मूल सिद्धांत मेरी नागरिक अधिकारों की समझ के साथ मेल खाते हैं: एक व्यक्तिगत प्रतिबद्धता के रूप में जो संस्थागत अनुदान की उपलब्धता या हुक्म पर निर्भर नहीं करता है। 2004 के संसदीय चुनावों के दौरान, पीयूसीएल के तमिलनाडु राज्य की इकाई ने शांति और सद्भाव के लिए नागरिक अभियान (सिटिज़न्स कैम्पेन फॉर पीस एंड हार्मनी) का शुभारंभ किया था। यह उस समय की बात है जब  गुजरात में 2002 का मुस्लिम विरोधी प्रोग्राम और बीजेपी का 'इंडिया शाइनिंग' अभियान देश की धर्मनिरपेक्षता को खतरे में डाल रहा था। कई आम नागरिकों ने धर्मनिरपेक्षता और शांति के लिए अपना योगदान दिया: विज्ञापन पेशेवरों ने सृजनात्मक विज्ञापन इन्सर्ट्स, पोस्टर, पर्चे बनाए और कई अखबारों ने निःशुल्क स्थान उपलब्ध करवाए। 12,000 से अधिक लोग एक संगीत समारोह में शामिल हुए जिसमें प्रमुख गायकों, नाटककारों और कवियों ने निःशुल्क कार्य क्रम किए।

नागरिकों ने अपने तरीके से योगदान दिया, और हालांकि उनका विशेष योगदान छोटा हो सकता है, यह समाज के लोकतांत्रिक स्वभाव को प्रोत्साहित करता है। पीयूसीएल 37 साल पुराना है, और कई जन आंदोलन उससे भी पुराने हैं, और यह केवल लंबे समय से मिलने वाली निरंतर, स्वैच्छिक गैर-वित्तपोषित भागीदारी के कारण ही संभव हुआ है।

संस्थागत रूप से अनुदान न मिलने के निःसंदेह नुकसान तो हैं। यदि हम अधिक पैसे दे सकते, तो शायद हमारे पास अधिक पूर्णकालिक कार्यकर्ता होते। शायद हमारे अभियान अधिक लंबे समय तक चलते, या अधिक लोगों तक पहुंचते। परंतु, हम इन सीमाओं को नवाचार के माध्यम से पूरा करने का प्रयास करते हैं। इंटरनेट ने विभिन्न आर्थिक और सामाजिक वर्गों से युवाओं की भागीदारी को बढ़ाया है, और याचिकाओं, मीडिया आउटरीच और पक्षसमर्थन के माध्यम से संदेश प्रसारित करना अधिक मज़बूत बना दिया है और बहुत सस्ता भी।

अनुदान की कमी ईमानदार कार्यों को रोक नहीं सकती। नई आम आदमी पार्टी (एएपी: आम लोगों की पार्टी) का नई दिल्ली में उद्भव एक बार फिर से इस बात की पुष्टि करता है। यह एक निचले स्तर वाला राजनीतिक दल है जो भ्रष्टाचार विरोधी मंच पर गठित किया गया था और इसके सभी कार्यकर्ता स्वयंसेवक हैं। बैंगलौर के पेशेवरों ने पार्टी के संभावित मतदाताओं को लाखों में फोन कॉल किए। यदि इसे पैसों में परिवर्तित किया जा सकता, तो पता नहीं कितने धन के बराबर होता। 

मौत की सज़ा को समाप्त करने, दमनकारी आतंकवाद कानून के विरूद्ध, अत्याचार और मुठभेड़ हत्याओं के खिलाफ़, या अधिकारों के रक्षकों की सुरक्षा करने जैसे बहुत से अभियान कई दशकों से उपस्थित हैं। इन अभियानों के प्रति शामिल लोगों की प्रतिबद्धता बिल्कुल मूलभूत और स्वतंत्र है, चाहे इसे प्रायोजित किया गया हो या नहीं। भारत में मानवाधिकार आंदोलन तब ही सफल रहे हैं, जब वे व्यापक, स्वैच्छिक और राजनीतिक रहे हैं।

मानव अधिकारों का संघर्ष लंबा, मुश्किल और अत्यधिक मेहनत की अपेक्षा रखने वाला है। मानवाधिकारों के दुरुपयोग का पैमाने हम में से किसी को भी निराशावादी या दोषदर्षी बना सकता है। परंतु, भारत भर में, हर रोज़, आम नागरिकों द्वारा एक हज़ार से भी अधिक विद्रोह शुरू किए जा रहे हैं जो इसलिए एक सैद्धांतिक जंग नहीं लड़ रहे हैं क्योंकि इन्हें अनुदान मिल रहा है, बल्कि इसलिए क्योंकि वे भारत के लोकतंत्र के लिए और विकास के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण रखते हैं। 

लाखों की संख्या में साधारण दलितों, आदिवासियों, खेतिहर मज़दूरों, असंगठित क्षेत्र कामगारों, छात्रों, महिलाओं, और यौन अल्पसंख्यकों की इन साहसी गैर-वित्तपोषित लड़ाइयों से मुझे, और मेरे जैसे कई लोगों को, प्रेरणा मिलती है कि हम लोकतंत्र को पुनःप्राप्त करने के लिए अपनी जंग जारी रखें।

जैसा रोहिनी मोहन को बताया गया